दिखोमुख के किनारे की
लहलहाती घास
और झुरमुट के आस-पास
कोमल अँगुलियों का
परिचित स्पर्श!
‘गमुशा’ की बुनावट में
मन नहीं रम पाता अब,
कुपोषित हो गए मांसल फूल।
उलझ गए हैं
रेशम के चमकते धागे
सुआलकूची के दलदल में,
प्रथम प्रार्थना के
अजनबी तारों की तरह
जूठन बीनते बेसहारों की तरह।
नामदांग का पानी
एक असमिया आख्यान
और सिमटी वीरानी
लेकर बहा जा रहा है,
कहा जा रहा है
शोरगुल
उसकी खामोशी को।
यह प्रवाह हर तांबूल के साथ
चढ़ा जा रहा है
हृदय की सूनी सीढ़ियों पर
खट-खट-खट-खट...
कौन समझेगा दिशांग की व्यथा
झरनों के जल की जबानी!
इसीलिए
थक गया चिल्लाते-चिल्लाते
पूर्वोत्तर के पहाड़ी झरनों का
मीठा स्वादिष्ट पानी।
पानी की थकन बेपानी हुई जाती है।